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गाड़ियाँ नहीं, उम्मीदें कबाड़ में जा रही हैं 

 

गाड़ियाँ नहीं, उम्मीदें कबाड़ में जा रही हैं 

दिल्ली सरकार या यूं कहें कि भारत सरकार की स्क्रैप नीति ने एक बार फिर से यह स्पष्ट कर दिया है कि भारतीय मध्यम वर्ग को नीति-निर्माण में केवल करदाता और उपभोक्ता के रूप में ही गिना जाता है—ना कि एक संवेदनशील नागरिक वर्ग के रूप में, जिसकी भावनाएँ, जरूरतें और गरिमा भी मायने रखती हैं।

मैं बड़ी जिम्मेदारी से यह बात, राष्ट्र के नीति-निर्धारकों और न्यायपालिका से कह रहा हूं कि सरकार द्वारा 10 वर्ष से अधिक पुरानी डीज़ल और 15 वर्ष से अधिक पुरानी पेट्रोल गाड़ियों को बिना शर्त कबाड़ घोषित करना, संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और आज़ादी का अधिकार) दोनों की मूल भावना के प्रतिकूल है।

 

फिट’ नहीं तो ‘स्क्रैप’?,

 

यह तर्क देना कि पुरानी गाड़ियाँ प्रदूषण का मुख्य स्रोत हैं, अपने आप में अधूरा है। जब एक वाहन नियमित रूप से पॉल्यूशन अंडर कंट्रोल (PUC) प्रमाणपत्र प्राप्त करता है और तकनीकी रूप से “फिट” होता है, तब केवल ‘आयु’ के आधार पर उसे “कबाड़” बना देना सिर्फ ‘नीतिगत लापरवाही’ ही नहीं, बल्कि ‘सामाजिक अन्याय’ भी है।

हवाई जहाज़ चलें लेकिन कारें नहीं?

यह बड़ा दिलचस्प विरोधाभास है कि 25-30 साल पुराने हवाई जहाज़ आज भी देश की सेवा में उड़ रहे हैं—जिनकी प्रदूषण की उत्सर्जन दर औसत कार की तुलना में कई गुना अधिक है। लेकिन वे चल रहे हैं, क्योंकि उनका संचालन “कॉरपोरेट्स” करते हैं। जो राजनैतिक पार्टियों को चंदा देते हैं और न्यायपालिका को क्या देते हैं? नहीं मालूम।

हां, इनकी मिलीभगत ने नागरिकों की निजी गाड़ियों पर तो अंकुश लगा कर कबाड़ घोषित कर दिया, परंतु कॉरपोरेट्स के वाहनों पर कोई चर्चा नहीं। यह नीति ‘पर्यावरण’ के नाम पर सरासर ‘पक्षपात’ है; और पक्षपात लोकतंत्र में अपराध की श्रेणी में गिना जाता है। दुर्भाग्य से गिनने वाले भी यही हैं। इसलिए हम ‘कराह’ तो सकते हैं लेकिन ‘चीख’ नहीं सकते !!

 

रिटायर्ड वर्ग का अपमान 

 

‘नीति-निर्धारण’ नागरिकों के कल्याण के लिए की जाती है। इस “स्क्रैप नीति” का सबसे क्रूर प्रभाव उन बुजुर्गों पर पड़ रहा है, जो अपने जीवन भर की कमाई से खरीदी गाड़ी को रिटायरमेंट के बाद एक साथी की तरह उपयोग करते हैं। आज वे मजबूर हैं। क्या करें? या तो भारी आर्थिक बोझ उठाएँ, या अपनी स्वतंत्रता को छोड़ें।

 

औद्योगिक लॉबी की ‘गाड़ी’ में सवार नीतियाँ 

 

क्या यह महज़ संयोग है कि जैसे ही यह नीति आई, ऑटोमोबाइल उद्योग में नई गाड़ियों की माँग अचानक तेज़ हो गई? क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि नीति-निर्माण अब नागरिकों की भलाई से ज़्यादा कॉरपोरेट बिक्री को ध्यान में रख कर किया जाता है?

हमारा विरोध है परन्तु समाधान के साथ।

हम सरकार से केवल विरोध नहीं कर रहे—हम वैकल्पिक रास्ता भी सुझा रहे हैं:

– नियमित PUC और फिटनेस टेस्ट के आधार पर गाड़ियों का मूल्यांकन किया जाए, ना कि केवल वर्षगाँठ देखकर।

– निजी और व्यावसायिक गाड़ियों के लिए पृथक नियम बनाए जाएँ।

– स्क्रैप नीति के नाम पर जबरन बिक्री का बोझ ना डाला जाए।

आख़िर में…

सरकार को नागरिकों की भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए। यहां बात केवल गाड़ियों की नहीं है। यह उस आत्मसम्मान की भी है, जिससे मध्यम-वर्ग देश के विकास में भागीदार बनता है। सरकार की ज़िम्मेदारी केवल सड़कें बनाने तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए, वह विश्वास भी बनाए। हम ऐसी आशा रखते हैं।

श्रीमानों, हमारी आवाज़ को कबाड़ में मत डालिए।

—क्योंकि हम सिर्फ वाहन नहीं चला रहे, हम आत्मनिर्भर भारत के आंदोलन में एक आत्मनिर्भर जीवन की दिशा की ओर चल रहे हैं।

 

अवधेश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार का आलेख

 

 

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